राष्ट्रीय (16/05/2015) 
पूर्ण गुरु ही ईश्वर का दर्शन कराते है - वैैष्णवी भारती
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से श्रीमद्भागवत महापुराण नवाह कथा ज्ञानयज्ञ का आयोजन राम लीला ग्राउंड, गीता काॅलोनी के पीछे, कड़कड़डूमा में किया जा रहा है। कथा 
के अष्टम् दिवस में सर्व आशुतोष महाराज की शिष्या साध्वी वैष्णवी भारती ने भगवान श्रीकृष्ण जी की मथुरागमन लीलाओं का वर्णन किया। उन्होेने बताया कि कंस के आज्ञानुसार अक्रूर जी कन्हैया और दाउफ को मथुरा लिवा लाने के लिए वृंदावन की ओर बढ़ जाते हैं। सारे गांव के अंदर यह समाचार जंगल के आग की तरह पफैल गया कि कन्हैया हम सब को छोड़ कर जा रहा है। सभी उनसे मिलने केे लिए नंद जी के आंगन में एकत्रित हो गए। सभी ग्वाल और गोपियां कन्हैया को बहुत भावभीनी विदाई देते हैं। वो निकंुज गलियां, जिनमें कभी जीवन मुस्कुराया करता था, आज रूआंसी सी थीं। एक अजीब और निपट उदासी से पटा हुआ था सारा गांव! प्राण से विहीन देह की क्या दशा हो सकती है? जिसकी आत्मा ही निकल जाए वो कैसे जीवंत दिखेगी? वहां के प्राण श्रीकृष्ण थे, आत्मा थे। जब वे मथुरा गए तो सारा गांव शव बन गया। जब अक्रूर जी उनको रथ पर बिठाकर मथुरा की ओर ले गए तो मार्ग मंे अक्रूर जी नदी में स्नान करने के लिए रुक जाते हैं। उन्होंने नदी में स्नान करते हुए भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी का दर्शन प्राप्त किया। लोग यह समझते हैं कि उनको नदी में ही श्रीकृष्ण व बलराम जी का दर्शन हो गया। परंतु ऐसा नहीं है क्योंकि भागवत महापुराण समाध् िकी भाषा मंे लिखा गया है। तो उसे हम बिना युक्ति के कैसे समझ सकते हैं? शास्त्रा, ग्रंथों की वाणी को कोई विरला ही समझ सकेगा। वह विरला वही होगा, जो पूर्ण गुरु की शरण प्राप्त करेगा। अक्रूर जी ने ध्यान की प्रक्रिया में उतर कर 
प्रभु का दर्शन प्राप्त किया था न कि नदी के जल में। आज समाज के अंदर ध्यान करना स्टेटस सिम्बल बन गया है। कोई मोमबत्ती, बल्ब पर अपनी दृष्टि एकाग्र करने को ध्यान कहता है तो कोई मन को कल्पना के द्वारा किसी सुंदर स्थान पर ले जाने को, कोई मंत्रों को मन  मन रटन करने को ध्यान की प(ति समझ रहा है। क्या बाहरी दो नेत्रों का मूंद कर बैठ जाना ध्यान है? बिल्कुल भी नहीं। ध्यान बाहर के नेत्रों का बंद करना नहीं अपितु भीतर के नेत्रा का खुलना है। अपनी इन्द्रियों को बलपूर्वक कहीं कल्पना में ले जाना साध्ना नहीं है। क्योंकि जहां तक भी इन्द्रियां जाती हैं वहां माया है। ध्यान के लिये दिव्य चक्षु का खुलना अति आवश्यक है और उसके लिए परम लक्ष्य ईश्वर का होना बहुत जरूरी हैै। एक पूर्ण गुरु 
की कृपा से साध्क के अंर्तजगत की यात्रा शुरू होती है। वह हमारे मन को आत्मा के परम प्रकाश में लीन होने की युक्ति प्रदान करते हैं। आत्मा का परम प्रकाश ही ध्याता का ध्येय है। कहते हैं साध्य के बिना साध्ना कैसी? उपास्य के बिना उपासना कैसी? ध्येय के बिना ध्यान 
कैसा? आज तक जिसने भी ईश्वर का दर्शन पाया भीतर ही पाया। क्योंकि हमारे भीतर ही वो आनंद का स्रोत परमात्मा विद्यमान है और भीतर की ध्यानरूपी नदी में डूब कर ही परमशांति के मणि-माणिक्य प्राप्त किए जा सकते हैं।
     उसके उपरांत कंस का वध् कर प्रभु ने एक निरंकुश राजा की सत्ता को समाप्त किया। वर्षो पहले जो आकाशवाणी हुई थी कि देवकी के आठवें गर्भ की संतान कंस का काल होगी। आज वह सत्य होे गई।
Copyright @ 2019.